दगा दे गई देश के गृह मंत्री पी चिदंबरम की किस्मत। नई सरकार के उनके कार्यकाल में आखिरकार आतंकी हमला हो ही गया। देश की आंतरिक सुरक्षा में 14 महीने बाद खौफनाक सेंध लगी है। चिदंबरम की झक सफेद धोती और बुश्शर्ट पर आतंक के खूनी छीटें पड़ ही गए।
13 फरवरी को धमाके से पुणे दहल गया। इस धमाके से महज हफ्ते भर पहले ही मुख्यमंत्रियों की बैठक में चिदंबरम का आत्ममुग्ध बयान आया था। उन्होंने 26/11 के बाद देश में बड़ा आतंकी हमला न होने को लेकर खुद की पीठ थपथपाई। ऐसा करके उन्होंने नई और पिछली यूपीए सरकार में खुद के 14 महीनों के हुकूमत की तारीफ की थी। हालांकि इसके पहले भी विनम्र गृह मंत्री ऐसे बयान देते रहे हैं। दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में उन्होंने सनसनीखेज खुलासा कर देश को चौंका दिया था। उन्होंने देश को बताया था कि उनके 13 महीनों के कार्यकाल में देश 13 बार आतंकियों ने हमले की नापाक कोशिश की। देश के इन हमलों से बचने का सेहरा उन्होंने किस्मत के सिर बांध दिया। ये एक अरब की आबादी की सुरक्षा की जिम्मेदारी संभालने वाले काबिल मंत्री का नाकाबिले तारीफ बयान था।
दरअसल पी चिदंबरम आत्ममुग्ध गृह मंत्री हैं। अपने आचार-व्यवहार से वक्त-वक्त पर ये साबित करते रहते हैं। वकील से राजनेता बने चिदंबरम का सुरक्षा तामझाम में न चलना काबिले तारीफ है। लेकिन आतंक की काली नजरों से घिरे देश के गृह मंत्री का सुरक्षा के तामझाम से दूर रहना कहीं सियासी दिखावा तो नहीं है। ये सरदार पटेल के वक्त का भारत नहीं है। ये 21वीं सदी के भारत है। जिस पर दसों दिशाओं से आतंकियों की काली नजर है और जो मौत का सामान जुटाए भारत को तहस-नहस करने की ताक में बैंठे हैं।
ये किसी से छिपा नहीं कि पाकिस्तान परस्त और पोषित आतंकी संगठन जब-तब हमारी धज्जियां उड़ाते रहे हैं। लेकिन अब खतरा उससे भी बड़ा है। अब तो पाकिस्तान की काली कोख में छुपे बैठे अल कायदा के आतंकी भी जिहाद की धमकी दे रहे हैं। पुणे धमाका ऐसी ही खूनी धमकी का विस्तार है। इस धमाके का संदेश साफ है। विदेशियों को निशाना बनाओ। यानी अब अंतरराष्ट्रीय 'पाप की धुरी' का नया टारगेट है भारत। कम से जर्मन बेकरी में धमाका तो यही भयावह संदेश देता है। अगर ये सही है तो फिर चिदंबरम की किस्मत का तो वही जाने लेकिन भारत की किस्मत की गारंटी भगवान भी नहीं ले सकता। 9/11 के बाद अल कायदा ने अपनी सारी काली ताकत झोंक दी। लेकिन वो अमेरिका में 9/11 दोहराने में नाकाम रहा। कम से कम ये अमेरिका की किस्मत नहीं थी, बल्कि जुनूनी फैसलों से किस्मत बदल डालने की अमेरिकी जिद थी। ये अमेरिका की तगड़ी और चाक चौबंद सुरक्षा व 'बेइज्जती' की हद तक की जाने वाली सुरक्षा जांच थी, जिसने अल कायदा के नापाक मंसूबों को नाकाम कर दिया।
अमेरिका पर हमलों के लिए तड़प रहे अल कायदा को भारत सॉफ्ट टारगेट दिख रहा है। फरवरी महीने की ही 5 तारीख को पाकिस्तान से आतंकी अब्दुल रहमान मक्की ने पुणे, कानपुर, दिल्ली में धमाके में धमकी दी थी। सिर्फ 8 दिन बाद ही पुणे का जर्मन बेकरी 10 लोगों की कब्रगाह बन गया। अब पाकिस्तान और अफगानिस्तान की सरहद के कबीलों में छिपे अल कायदा के आतंकी इलियास कश्मीरी ने धमकी दी है। इलियास ने विदेशी खिलाड़ियों को भारत न आने की धमकी दी। ये धमकी तब आई है जबकि महीने के आखिर से हॉकी वर्ल्ड कप होना है। इसके बाद आईपीएल और कॉमनवेल्थ गेम्स में हिस्सा लेने के लिए बड़ी संख्या में विदेशी खिलाड़ी भारत में होंगे। ऐसे में अगर अल कायदा अपनी नापाक धमकी को अंजाम देने पर उतर आया तो फिर पी चिदंबरम की किस्मत में इतनी ताकत नहीं है कि वो देश को बचा ले
Tuesday, February 16, 2010
Thursday, February 11, 2010
फिर हार गई मुंबई
एक बार फिर हार गई मुंबई... एक बार फिर पस्त हो गई मुंबई... जब अपनों ने ही फैलाया आतंक तो टूट गया मुंबई का जज्बा... आतंक को मुंहतोड़ जवाब देने वाली मुंबई का हौंसला टुकड़े-टुकड़े हो गया... शिवसेना के गुंडों के आगे सरकार ने घुटने टेक दिए... तो मुंबई की जनता भी पीछे हट गई... ये मुंबई की वो जनता नहीं है... जिसे हम जानते थे... ये 93 बम धमाकों के बाद की मुंबई नहीं है....ये 2003 धमाकों के बाद की मुंबई नहीं है... ये 2006 में ट्रेनों में हुए सीरियल ब्लास्ट के बाद की मुंबई नहीं है... ये 26/11 के बाद की भी मुंबई नहीं है...ये वो मुंबई नहीं है... जिसने न जाने कितने हमले झेले... न जाने कितने आपदाएं झेली... लेकिन जो हर झटके के बाद फिर उठ खड़ी हुई... और उसी जोश और जज्बे से जिंदगी की जंग से लड़ने निकल पड़ी... ये हारी हुई मुंबई है... ठाकरे के गुंडों के आगे पस्त मुंबई... इस मुंबई में बॉलीवुड का किंग कहलाने वाला खान अकेला रह गया है... निरा अकेला...
वैसे दोषी सिर्फ मुंबई की जनता नहीं है... कम दोषी बॉलीवुड भी नहीं है... ठाकरे परिवार की गुंडागर्दी के खिलाफ मायानगरी कभी भी सीना तानकर नहीं खड़ी दिखी... मायानगरी के बड़े-बड़े सूरमा हमेशा ठाकरे दरबार में बंदगी बजाते दिखे... हमेशा मायानगरी के बड़े-बड़े सूरमा ठाकरे दरबार में सिर झुकाते दिखे... रील लाइफ में सैकड़ों को धराशयी कर देने वाले हीरो मुंबई के हिटलर के दरबार में घिघियाते ही दिखे... जब-जब मातोश्री ने जहर उगला... उस जहर में झुलसा मुंबई को मुंबई बनाने वाला मुंबईकर ही.. मुंबई में उत्तर भारतीयों पर भतीजे ठाकरे के गुंडों का कहर खूब जमकर बरपा... लेकिन रील लाइफ में जुल्म के खिलाफ जंग करने वाली मायानगरी खामोश रही... रील लाइफ का नायक रियल लाइफ के खलनायक के खिलाफ चुप्पी साधे रहे... मायानगरी के किसी भी सूरमा ने मुंबईकर की सुध लेने की कोशिश नहीं की... उस मुंबईकर की, जिसकी बदौलत उसकी रोजी-रोटी चलती है... जो अपनी गाढ़ी कमाई इन सूरमाओं के नकली स्टंट देखने में फूंक देता है... जब उसी मुंबईकर की रोजी-रोटी पर संकट आया तो सब मुंह छिपाए घूमते रहे... भतीजे ठाकरे के गुंडों का डंडा चला तो बॉलीवुड की बिलों में दुबक गए ये सूरमा... अपने दर्द के साथ अकेला रह गया मुंबईकर... छिटपुट बयानों को छोड़ दें तो कोई सीना तानकर सामने नहीं आया...
अब बारी इन सूरमाओ की है... बारी बॉलीवुड के किंग की है... मुंबई का नया डॉन बनने की चाहत पाले भतीजे की कुख्याति बढ़ी... तो बूढ़े चाचा को चिंता हुई... मुंबई की ठेकेदारी हाथ से जाती दिखी... बेटे ठाकरे का भविष्य अंधकार में दिखा... तो बूढे ठाकरे का जोश जाग गया... बूढ़े ठाकरे ने पुत्र मोह में मातोश्री से चला दिया जहर बुझा तीर... इस तीर के निशाने पर थे बॉलीवुड के किंग खान.... चाचा ने कांग्रेसी अभिनेता पर हल्ला बोला तो मुंबई की सरकार भी बुरा मान गई... सरकार ने चाचा को चेतावनी दी... तरह-तरह से धमकाया... लेकिन महाराष्ट्र के गृह मंत्री की पार्टी के आका जाकर ठाकरे दरबार में हाजिरी लगा आए... चाचा का दुस्साहस बुलंदी पर पहुंच गया... चाचा ने सरकार को ठेंगा दिखा दिया... चाचा ने मुंबई के सिनेमाहॉल मालिकों को धमकी दे दी कि किंग खान की फिल्म दिखाई तो खैर नहीं... सरकार ने खूब भरोसा दिया... लेकिन ठाकरे की गुंडागर्दी सरकार पर भारी पड़ी और थिएटर मालिक ने ठाकरे की धमकी के आगे सरेंडर कर दिया... सरेंडर तो बॉलीवुड का किंग भी करना चाहता था... लेकिन महाराष्ट्र की बेबस सरकार ने अपनी इज्जत का वास्ता देकर किंग को रोक लिया...
बॉलीवुड का किंग बॉलीवुड में अकेला पड़ गया... छिटपुट मरी-मरी आवाज के अलावा बॉलीवुड के किंग के समर्थन में कोई दमदार आवाज सामने नहीं आई... यहां तक के बॉलीवुड के बड़े बी ने तो बूढ़े ठाकरे की शान में कसीदे पढ़ दिए... दरअसल बड़े बी पुराना हिसाब चुकता कर रहे थे... ज्यादा पुरानी बात नहीं है... नजारा बिल्कुल यही था लेकिन किरदार बदले थे... भतीजे ठाकरे ने विधानसभा चुनावों से उत्तर भारतीयों को धमकाया तो बॉलीवुड के बड़े बी को भी निशाने पर लिया... बड़े बी ने शुरू में कुछ जोर दिखाया... लेकिन बाद में बड़े बी सरेंडर कर गए... जब बड़े बी पर भतीजा हल्ला बोल रहा था तो बॉलीवुड के बड़े-बड़े सुरमा दुबके रहे... बड़े बी को बॉलीवुड से किसी का साथ नहीं मिला... कांग्रेस और एनसीपी की सरकार से भी बड़े बी के समर्थन में कुछ खास नहीं बोली... बोलती भी कैसे बड़े बी कांग्रेस के अभिनेता तो थे नहीं... वैसे भी कांग्रेस को चाचा ठाकरे की पार्टी को नेस्तनाबूद करने के लिए भतीजे ठाकरे की दरकार है... भतीजा जितना मजबूत होगा चाचा उतना ही कमजोर और इस कमजोरी में कांग्रेस की मजबूती है... लेकिन इस बार मामला उलटा है... अबकी वार कांग्रेस और उसके अभिनेता पर है... लेकिन वार बूढे ठाकरे का है... और बूढ़े ठाकरे के गुंडों के आगे महाराष्ट्र की सरकार बेबस और बेदम नजर आ रही है....
वैसे दोषी सिर्फ मुंबई की जनता नहीं है... कम दोषी बॉलीवुड भी नहीं है... ठाकरे परिवार की गुंडागर्दी के खिलाफ मायानगरी कभी भी सीना तानकर नहीं खड़ी दिखी... मायानगरी के बड़े-बड़े सूरमा हमेशा ठाकरे दरबार में बंदगी बजाते दिखे... हमेशा मायानगरी के बड़े-बड़े सूरमा ठाकरे दरबार में सिर झुकाते दिखे... रील लाइफ में सैकड़ों को धराशयी कर देने वाले हीरो मुंबई के हिटलर के दरबार में घिघियाते ही दिखे... जब-जब मातोश्री ने जहर उगला... उस जहर में झुलसा मुंबई को मुंबई बनाने वाला मुंबईकर ही.. मुंबई में उत्तर भारतीयों पर भतीजे ठाकरे के गुंडों का कहर खूब जमकर बरपा... लेकिन रील लाइफ में जुल्म के खिलाफ जंग करने वाली मायानगरी खामोश रही... रील लाइफ का नायक रियल लाइफ के खलनायक के खिलाफ चुप्पी साधे रहे... मायानगरी के किसी भी सूरमा ने मुंबईकर की सुध लेने की कोशिश नहीं की... उस मुंबईकर की, जिसकी बदौलत उसकी रोजी-रोटी चलती है... जो अपनी गाढ़ी कमाई इन सूरमाओं के नकली स्टंट देखने में फूंक देता है... जब उसी मुंबईकर की रोजी-रोटी पर संकट आया तो सब मुंह छिपाए घूमते रहे... भतीजे ठाकरे के गुंडों का डंडा चला तो बॉलीवुड की बिलों में दुबक गए ये सूरमा... अपने दर्द के साथ अकेला रह गया मुंबईकर... छिटपुट बयानों को छोड़ दें तो कोई सीना तानकर सामने नहीं आया...
अब बारी इन सूरमाओ की है... बारी बॉलीवुड के किंग की है... मुंबई का नया डॉन बनने की चाहत पाले भतीजे की कुख्याति बढ़ी... तो बूढ़े चाचा को चिंता हुई... मुंबई की ठेकेदारी हाथ से जाती दिखी... बेटे ठाकरे का भविष्य अंधकार में दिखा... तो बूढे ठाकरे का जोश जाग गया... बूढ़े ठाकरे ने पुत्र मोह में मातोश्री से चला दिया जहर बुझा तीर... इस तीर के निशाने पर थे बॉलीवुड के किंग खान.... चाचा ने कांग्रेसी अभिनेता पर हल्ला बोला तो मुंबई की सरकार भी बुरा मान गई... सरकार ने चाचा को चेतावनी दी... तरह-तरह से धमकाया... लेकिन महाराष्ट्र के गृह मंत्री की पार्टी के आका जाकर ठाकरे दरबार में हाजिरी लगा आए... चाचा का दुस्साहस बुलंदी पर पहुंच गया... चाचा ने सरकार को ठेंगा दिखा दिया... चाचा ने मुंबई के सिनेमाहॉल मालिकों को धमकी दे दी कि किंग खान की फिल्म दिखाई तो खैर नहीं... सरकार ने खूब भरोसा दिया... लेकिन ठाकरे की गुंडागर्दी सरकार पर भारी पड़ी और थिएटर मालिक ने ठाकरे की धमकी के आगे सरेंडर कर दिया... सरेंडर तो बॉलीवुड का किंग भी करना चाहता था... लेकिन महाराष्ट्र की बेबस सरकार ने अपनी इज्जत का वास्ता देकर किंग को रोक लिया...
बॉलीवुड का किंग बॉलीवुड में अकेला पड़ गया... छिटपुट मरी-मरी आवाज के अलावा बॉलीवुड के किंग के समर्थन में कोई दमदार आवाज सामने नहीं आई... यहां तक के बॉलीवुड के बड़े बी ने तो बूढ़े ठाकरे की शान में कसीदे पढ़ दिए... दरअसल बड़े बी पुराना हिसाब चुकता कर रहे थे... ज्यादा पुरानी बात नहीं है... नजारा बिल्कुल यही था लेकिन किरदार बदले थे... भतीजे ठाकरे ने विधानसभा चुनावों से उत्तर भारतीयों को धमकाया तो बॉलीवुड के बड़े बी को भी निशाने पर लिया... बड़े बी ने शुरू में कुछ जोर दिखाया... लेकिन बाद में बड़े बी सरेंडर कर गए... जब बड़े बी पर भतीजा हल्ला बोल रहा था तो बॉलीवुड के बड़े-बड़े सुरमा दुबके रहे... बड़े बी को बॉलीवुड से किसी का साथ नहीं मिला... कांग्रेस और एनसीपी की सरकार से भी बड़े बी के समर्थन में कुछ खास नहीं बोली... बोलती भी कैसे बड़े बी कांग्रेस के अभिनेता तो थे नहीं... वैसे भी कांग्रेस को चाचा ठाकरे की पार्टी को नेस्तनाबूद करने के लिए भतीजे ठाकरे की दरकार है... भतीजा जितना मजबूत होगा चाचा उतना ही कमजोर और इस कमजोरी में कांग्रेस की मजबूती है... लेकिन इस बार मामला उलटा है... अबकी वार कांग्रेस और उसके अभिनेता पर है... लेकिन वार बूढे ठाकरे का है... और बूढ़े ठाकरे के गुंडों के आगे महाराष्ट्र की सरकार बेबस और बेदम नजर आ रही है....
Tuesday, December 1, 2009
खदान में दफन होते खानदान
पत्थर, स्लेट की खदानों की शोर में खामोशी से मिली फेफड़े की खौफनाक बीमारी सिलिकोसिस से तिल-तिल कर दम तोड़ते लाखों मजदूर। ये तेजी से विकसित होते भारत का ऐसा खौफनाक सच है जिससे सरकार, सरकार मशीनरी सब आंखे मूंदे बैठे हैं।
दरअसल सिलिकोसिस खदान और कंस्ट्रक्शन मजदूरों के शरीर में खामोशी से घर बना लेने वाली भयानक मौत है। पत्थर तोड़ने के दौरान निकली खतरनाक सिलिका चुपके-चुपके इन मजदूरों के फेफड़ों में जगह बना लेती है। फिर धीरे-धीरे खामोशी से उन्हें अपनी जकड़ में ले लेती है। इस बीमारी की गिरफ्त में आए मजदूर के फेफड़े धीरे-धीरे सिकुड़ने लगते हैं और एक दिन सांस लेने से इनकार कर देते हैं। सिलिकोसिस की गिरफ्त में आने का सिर्फ एक ही मतलब है तिल-तिल कर मौत। स्लेट पेंसिल कटिंग, स्टोन कटिंग उद्योग में सिलिकोसिस ज्यादा भयानक है। अलग-अलग उद्योगों में इसके चपेट में आने की आशंका भी अलग-अलग है। वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक सिलिकोसिस विकासशील देशी की बहुत ही गंभीर समस्या है। भारत सहित कई विकासशील देशों के लाखों मजदूर धीरे-धीरे मौत की आगोश में चले जाते हैं। कई बार तो इनके परिवार को भी इनकी मौत की वजह नहीं पता चल पाती। जहां दो रोटी मुश्किल से मयस्सर होती है वहां इस गंभीर बीमारी की चपेट में आने के बाद मजदूर अपना इलाज नहीं करा पाता।
आईसीएमआर के 10 साल पुराने आंकड़े के मुताबिक उस वक्त देश में 30 लाख मजदूर और कंस्ट्रक्शन में लगे 56 लाख मजदूरों के सीधे तौर पर सिलिकोसिस की चपेट में आने का खतरा था। तबसे अर्थव्यवस्था में भारी उछाल के साथ निर्माण कार्यों और खदानों की गतिविधियों में भी तेजी से बढ़ोतरी हुई। इसी के साथ मजदूरों की संख्या भी कई गुना बढ़ी। यानी खतरा भी उसी अनुपात में बढ़ा। लेकिन इस खौफनाक बीमारी को लेकर खान मालिकों, राज्य सरकारों और यहां तक केंद्र सरकार का रवैया हमेशा से उदासीन रहा है। अभी तक के मामलों से यही साबित होता है कि सिलिकोसिस के रोगी इस क्षेत्र में काम रही एनजीओ, अदालत और एनएचआरसी के मोहताज हैं। कुछेक एनजीओ की सक्रियता के चलते मजदूरों की इस रहस्यमय बीमारी को लेकर जागरुकता जगी। वरना सिलिकोसिस से मौत के मामलों में अस्पताल भी टीबी से मौत का डेथ सर्टिफिकेट ही जारी करते थे।
सरकारी उदासीनता से त्रस्त कई स्वयंसेवी संस्थाओं ने अदालतों का ध्यान इस ओर खींचा। एनजीओ की याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने घातक और मारक सिलिकोसिस से मजदूरों को बचाने और उन्हें राहत देने के लिए एनएचआरसी को आदेश जारी किए। मार्च 2009 के एक फैसले में तो माननीय उच्च न्यायालय ने सिलिकोसिस के हर पीड़ित को वैयक्तिक आधार पर राहत दिलाने के निर्देश दिए। सुप्रीम कोर्ट के आदेशों और कई एनजीओ की शिकायतों पर गौर करते हुए एनएचआरसी ने सिलिकोसिस के पीड़ितों को राहत दिलाने की पहल की है। सिलिकोसिस को लेकर राज्यों के लापरवाह रुख से अवाक राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग अब कड़ी कार्रवाई के पक्ष में है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के मेंबर सेक्रेट्री और सिलिकोसिस के मामलों पर नजदीक से निगाह रख रहे पी सी शर्मा के मुताबिक एनएचआरसी सिलिकोसिस के हर पीड़ित को उसका वाजिब हक दिलाने के लिए कटिबद्ध है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग मजदूरों के मानवाधिकार की रक्षा के लिए इनके प्रति लापरवाही बरतने वाले सरकारी अफसरों और नियोक्ताओं के लिए कड़े दंड के पक्ष में है।
इसी भारत में खदान खोदवाते-खोदवाते बेल्लारी के रेड्डी बंधु कर्नाटक में सरकार बनाने-बिगाड़ने में लग गुए। झारखंड में कहा जा रहा है कि मधु कोड़ा ने इन्ही खदानों के आवंटन की बदौलत 4000 करोड़ से ज्यादा की अकूत काली कमाई की। ये इस भारत की खदानों का एक सच है। दूसरा सच है, यही खदानें लाखों मजदूरों और उनके खानदान के लिए खामोश मौत का खौफनाक सबब हैं। सौ रुपये की दिहाड़ी के लिए खामोशी से नौकरी करने वाले गरीब मजदूरों की मौत भी उतनी ही खामोश होती है। हर साल हजारों मजदूर की खामोश मौत पर सरकारी खामोशी खौफनाक है। इन खौफनाक, खतरनाक और खामोश मौत पर जरूरत सरकार की खामोशी टूटने की है। भारत के दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने में इन अकुशल मजदूरों का बड़ा योगदान है। इन जैसे अकुशल मानव संसाधन के बल पर भारत तेजी से दुनिया के पटल पर अपनी जगह मजबूत करता जा रहा है लेकिन सोचिए जरा अगर भारत की मानव संपदा इसी तरह सरकारी मशीनरी की बेशर्म लापरवाही की भेंट चढ़ती रही तो दुनिया का सिरमौर बनने का भारत का सपना कहीं सिर्फ सपना ही न रह जाए।
दरअसल सिलिकोसिस खदान और कंस्ट्रक्शन मजदूरों के शरीर में खामोशी से घर बना लेने वाली भयानक मौत है। पत्थर तोड़ने के दौरान निकली खतरनाक सिलिका चुपके-चुपके इन मजदूरों के फेफड़ों में जगह बना लेती है। फिर धीरे-धीरे खामोशी से उन्हें अपनी जकड़ में ले लेती है। इस बीमारी की गिरफ्त में आए मजदूर के फेफड़े धीरे-धीरे सिकुड़ने लगते हैं और एक दिन सांस लेने से इनकार कर देते हैं। सिलिकोसिस की गिरफ्त में आने का सिर्फ एक ही मतलब है तिल-तिल कर मौत। स्लेट पेंसिल कटिंग, स्टोन कटिंग उद्योग में सिलिकोसिस ज्यादा भयानक है। अलग-अलग उद्योगों में इसके चपेट में आने की आशंका भी अलग-अलग है। वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक सिलिकोसिस विकासशील देशी की बहुत ही गंभीर समस्या है। भारत सहित कई विकासशील देशों के लाखों मजदूर धीरे-धीरे मौत की आगोश में चले जाते हैं। कई बार तो इनके परिवार को भी इनकी मौत की वजह नहीं पता चल पाती। जहां दो रोटी मुश्किल से मयस्सर होती है वहां इस गंभीर बीमारी की चपेट में आने के बाद मजदूर अपना इलाज नहीं करा पाता।
आईसीएमआर के 10 साल पुराने आंकड़े के मुताबिक उस वक्त देश में 30 लाख मजदूर और कंस्ट्रक्शन में लगे 56 लाख मजदूरों के सीधे तौर पर सिलिकोसिस की चपेट में आने का खतरा था। तबसे अर्थव्यवस्था में भारी उछाल के साथ निर्माण कार्यों और खदानों की गतिविधियों में भी तेजी से बढ़ोतरी हुई। इसी के साथ मजदूरों की संख्या भी कई गुना बढ़ी। यानी खतरा भी उसी अनुपात में बढ़ा। लेकिन इस खौफनाक बीमारी को लेकर खान मालिकों, राज्य सरकारों और यहां तक केंद्र सरकार का रवैया हमेशा से उदासीन रहा है। अभी तक के मामलों से यही साबित होता है कि सिलिकोसिस के रोगी इस क्षेत्र में काम रही एनजीओ, अदालत और एनएचआरसी के मोहताज हैं। कुछेक एनजीओ की सक्रियता के चलते मजदूरों की इस रहस्यमय बीमारी को लेकर जागरुकता जगी। वरना सिलिकोसिस से मौत के मामलों में अस्पताल भी टीबी से मौत का डेथ सर्टिफिकेट ही जारी करते थे।
सरकारी उदासीनता से त्रस्त कई स्वयंसेवी संस्थाओं ने अदालतों का ध्यान इस ओर खींचा। एनजीओ की याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने घातक और मारक सिलिकोसिस से मजदूरों को बचाने और उन्हें राहत देने के लिए एनएचआरसी को आदेश जारी किए। मार्च 2009 के एक फैसले में तो माननीय उच्च न्यायालय ने सिलिकोसिस के हर पीड़ित को वैयक्तिक आधार पर राहत दिलाने के निर्देश दिए। सुप्रीम कोर्ट के आदेशों और कई एनजीओ की शिकायतों पर गौर करते हुए एनएचआरसी ने सिलिकोसिस के पीड़ितों को राहत दिलाने की पहल की है। सिलिकोसिस को लेकर राज्यों के लापरवाह रुख से अवाक राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग अब कड़ी कार्रवाई के पक्ष में है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के मेंबर सेक्रेट्री और सिलिकोसिस के मामलों पर नजदीक से निगाह रख रहे पी सी शर्मा के मुताबिक एनएचआरसी सिलिकोसिस के हर पीड़ित को उसका वाजिब हक दिलाने के लिए कटिबद्ध है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग मजदूरों के मानवाधिकार की रक्षा के लिए इनके प्रति लापरवाही बरतने वाले सरकारी अफसरों और नियोक्ताओं के लिए कड़े दंड के पक्ष में है।
इसी भारत में खदान खोदवाते-खोदवाते बेल्लारी के रेड्डी बंधु कर्नाटक में सरकार बनाने-बिगाड़ने में लग गुए। झारखंड में कहा जा रहा है कि मधु कोड़ा ने इन्ही खदानों के आवंटन की बदौलत 4000 करोड़ से ज्यादा की अकूत काली कमाई की। ये इस भारत की खदानों का एक सच है। दूसरा सच है, यही खदानें लाखों मजदूरों और उनके खानदान के लिए खामोश मौत का खौफनाक सबब हैं। सौ रुपये की दिहाड़ी के लिए खामोशी से नौकरी करने वाले गरीब मजदूरों की मौत भी उतनी ही खामोश होती है। हर साल हजारों मजदूर की खामोश मौत पर सरकारी खामोशी खौफनाक है। इन खौफनाक, खतरनाक और खामोश मौत पर जरूरत सरकार की खामोशी टूटने की है। भारत के दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने में इन अकुशल मजदूरों का बड़ा योगदान है। इन जैसे अकुशल मानव संसाधन के बल पर भारत तेजी से दुनिया के पटल पर अपनी जगह मजबूत करता जा रहा है लेकिन सोचिए जरा अगर भारत की मानव संपदा इसी तरह सरकारी मशीनरी की बेशर्म लापरवाही की भेंट चढ़ती रही तो दुनिया का सिरमौर बनने का भारत का सपना कहीं सिर्फ सपना ही न रह जाए।
Thursday, November 19, 2009
किसान! खबरदार! अब मत आना दिल्ली
दिल्ली हाट, ट्रेड फेयर, सूरजकुंड मेले में सजावटी सामान की तरह दिखने वाला किसान 19 नवंबर को दिल्ली की सड़कों पर था। दिल्ली की सड़कें बंधक हो गईं। रुकी-रुकी सी लगने लगी थी दिल्ली की जिंदगी। सड़क पर हजारों किसान थे। शायद ही इनमें से किसी को दिल्ली की सैर कराने का लालच देकर लाया गया हो, जैसा कि कई रैलियों में होता है। ये दिल्ली का लाल किला, कुतुबमीनार, पुराना किला या हुमायूं का मकबरा नहीं देखने आए थे। ये प्रगति मैदान में चलने वाले ट्रेड फेयर की सैर करने नहीं आए थे। ये चांदनी चौक या दिल्ली के लकदक चमचमाते मॉल में खरीदारी करने नहीं आए थे। ये किसान देश की राजधानी को अपना दर्द बताने आए थे। लम्बे अरसे बाद किसान अखबारों की लीड बने। चैनलों की ब्रेकिंग बने। टिकर की खबर बने। लच्छेदार पैकेज के शब्द बने। लेकिन अफसोस इतना कुछ होने के बावजूद देश की राजधानी को उनका दर्द नहीं दिखा। या फिर हम देश की राजधानी को उनका दर्द नहीं दिखा पाए। देश की राजधानी को दिखा ट्रैफिक जाम। हर रोज सरकारी लापरवाही या फिर अपनी गलती से ऐसे ट्रैफिक जाम से जूझते दिल्ली वासियों को बहुत बुरा लगा। आखिर एक दिन उनकी जिंदगी जो अस्त-व्यस्त हो गई।
इससे क्या मतलब है कि हममें से कई इसी खेती किसानी की कमाई से पढ़-लिखकर यहां तक पहुंचे है। इससे क्या फर्क पड़ता है कि हमने से कई ने रात भर जाग-जाग अमावस की स्याह अंधेरी रातों में खेत सींचा है। अब हम 100-100 रुपये के लिए परेशान होने वाले किसान के बेटे थोड़े ही हैं। अब हम खेती किसानी की कमाई से पढ़-लिखकर इस बड़े शहर और आसपास के इलाकों में अपना घर बनाने की जद्दोजहद में लगे हैं। अब तो हमें अपना घर बनाने, अपनी लंबी-लंबी कारों के लिए सड़क बनाने, अपने लिए लग्जरी सामान बनाने वाली फैक्ट्रियों के वास्ते इन्हीं किसानों की जमीन चाहिए। चीनी की कीमतें भले ही 38 रुपये किलो पहुंच जाएं। लेकिन इसका फायदा हम इन किसानों के हाथ में कैसे जाने दें। आखिर इसी मुनाफे और फायदे से खेती की जमीनों पर हमें गगनचुंबी इमारतें खड़ी करनी हैं। अगर ये किसान बचे रहे और इनकी किसानी बची रही तो इनकी जमीन पर हम गगनचुंबी इमारतें कैसे खड़ी कर पाएंगे। वैसे भी हम इनकी बात क्यों करें, ये हमारे ग्राहक भी तो नहीं है। अब हमें इन गंवार, गंदे किसानों से क्या लेना-देना। और तो और जो सांसद और राजनेता इनके 'गलत' आंदोलन के साथ जुड़े हम उनको भी कठघरे में खड़ा करेंगे। हम उन्हें इसलिए कठघरे में खड़ा करेंगे कि आखिर एक दिन संसद की कार्यवाही ठप करके उन्होंने देश को लाखों रुपये का नुकसान क्यों कराया। आखिर सर्दी, बारिश, गर्मी की परवाह न करने वालों किसानों के हक की बात उन्होंने क्यों की? किसने उन्हें हक दिया कि वो किसानों की बात करें। हो सकता है कि 80 फीसदी या उससे भी ज्यादा सांसद इन्हीं किसानों के वोट से चुनकर देश की महापंचायत में पहुंचे हों लेकिन उन्हें हक नहीं है कि कुछेक लाख दिल्लीवासियों को करोड़ों किसानों के लिए वो जाम में फंसने के लिए छोड़े दें। आखिर इस जाम से किसी की फ्लाइट मिस हो गई। हो सकता है इससे उसे लाखो-करोड़ों का नुकसान हो गया है। इस जाम से किसी की बिजनेस मीट रद्द हो गई। हो सकता है उससे उसके बैंक बैलेंस में कुछ करोड़ और आने से रह गए। वैसे भी ये जाहिल किसान कुछ रुपये के लिए दिल्ली को एक दिन के लिए ट्रैफिक जाम में कैसे फंसा सकते हैं। हम ऐसे किसानों को माफ नहीं कर सकते और हमें उन्हें माफ करना भी नहीं चाहिए। सुन रहे हो किसानों! देश को चीनी देने वालों! खुद गुड़ से काम चलाने वालों! दिल्ली तुम्हें माफ नहीं करेगी। हां, जब कोई पुण्य प्रसून वाजपेयी तुम्हारे बारे में लिखेंगे, जब कोई प्रताप सोमवंशी बुंदेलखंड में तुम्हारी दर्दनाक मौत पर कलम चलाएंगे तो हम उनकी मर्मांतक रिपोर्ट पर उन्हें पुरस्कार देंगे। इससे तुम्हारे घाव पर मरहम लग जाएगा। इसलिए हे किसान! खबरदार! अब कभी मत आना दिल्ली।
इससे क्या मतलब है कि हममें से कई इसी खेती किसानी की कमाई से पढ़-लिखकर यहां तक पहुंचे है। इससे क्या फर्क पड़ता है कि हमने से कई ने रात भर जाग-जाग अमावस की स्याह अंधेरी रातों में खेत सींचा है। अब हम 100-100 रुपये के लिए परेशान होने वाले किसान के बेटे थोड़े ही हैं। अब हम खेती किसानी की कमाई से पढ़-लिखकर इस बड़े शहर और आसपास के इलाकों में अपना घर बनाने की जद्दोजहद में लगे हैं। अब तो हमें अपना घर बनाने, अपनी लंबी-लंबी कारों के लिए सड़क बनाने, अपने लिए लग्जरी सामान बनाने वाली फैक्ट्रियों के वास्ते इन्हीं किसानों की जमीन चाहिए। चीनी की कीमतें भले ही 38 रुपये किलो पहुंच जाएं। लेकिन इसका फायदा हम इन किसानों के हाथ में कैसे जाने दें। आखिर इसी मुनाफे और फायदे से खेती की जमीनों पर हमें गगनचुंबी इमारतें खड़ी करनी हैं। अगर ये किसान बचे रहे और इनकी किसानी बची रही तो इनकी जमीन पर हम गगनचुंबी इमारतें कैसे खड़ी कर पाएंगे। वैसे भी हम इनकी बात क्यों करें, ये हमारे ग्राहक भी तो नहीं है। अब हमें इन गंवार, गंदे किसानों से क्या लेना-देना। और तो और जो सांसद और राजनेता इनके 'गलत' आंदोलन के साथ जुड़े हम उनको भी कठघरे में खड़ा करेंगे। हम उन्हें इसलिए कठघरे में खड़ा करेंगे कि आखिर एक दिन संसद की कार्यवाही ठप करके उन्होंने देश को लाखों रुपये का नुकसान क्यों कराया। आखिर सर्दी, बारिश, गर्मी की परवाह न करने वालों किसानों के हक की बात उन्होंने क्यों की? किसने उन्हें हक दिया कि वो किसानों की बात करें। हो सकता है कि 80 फीसदी या उससे भी ज्यादा सांसद इन्हीं किसानों के वोट से चुनकर देश की महापंचायत में पहुंचे हों लेकिन उन्हें हक नहीं है कि कुछेक लाख दिल्लीवासियों को करोड़ों किसानों के लिए वो जाम में फंसने के लिए छोड़े दें। आखिर इस जाम से किसी की फ्लाइट मिस हो गई। हो सकता है इससे उसे लाखो-करोड़ों का नुकसान हो गया है। इस जाम से किसी की बिजनेस मीट रद्द हो गई। हो सकता है उससे उसके बैंक बैलेंस में कुछ करोड़ और आने से रह गए। वैसे भी ये जाहिल किसान कुछ रुपये के लिए दिल्ली को एक दिन के लिए ट्रैफिक जाम में कैसे फंसा सकते हैं। हम ऐसे किसानों को माफ नहीं कर सकते और हमें उन्हें माफ करना भी नहीं चाहिए। सुन रहे हो किसानों! देश को चीनी देने वालों! खुद गुड़ से काम चलाने वालों! दिल्ली तुम्हें माफ नहीं करेगी। हां, जब कोई पुण्य प्रसून वाजपेयी तुम्हारे बारे में लिखेंगे, जब कोई प्रताप सोमवंशी बुंदेलखंड में तुम्हारी दर्दनाक मौत पर कलम चलाएंगे तो हम उनकी मर्मांतक रिपोर्ट पर उन्हें पुरस्कार देंगे। इससे तुम्हारे घाव पर मरहम लग जाएगा। इसलिए हे किसान! खबरदार! अब कभी मत आना दिल्ली।
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