दिल्ली हाट, ट्रेड फेयर, सूरजकुंड मेले में सजावटी सामान की तरह दिखने वाला किसान 19 नवंबर को दिल्ली की सड़कों पर था। दिल्ली की सड़कें बंधक हो गईं। रुकी-रुकी सी लगने लगी थी दिल्ली की जिंदगी। सड़क पर हजारों किसान थे। शायद ही इनमें से किसी को दिल्ली की सैर कराने का लालच देकर लाया गया हो, जैसा कि कई रैलियों में होता है। ये दिल्ली का लाल किला, कुतुबमीनार, पुराना किला या हुमायूं का मकबरा नहीं देखने आए थे। ये प्रगति मैदान में चलने वाले ट्रेड फेयर की सैर करने नहीं आए थे। ये चांदनी चौक या दिल्ली के लकदक चमचमाते मॉल में खरीदारी करने नहीं आए थे। ये किसान देश की राजधानी को अपना दर्द बताने आए थे। लम्बे अरसे बाद किसान अखबारों की लीड बने। चैनलों की ब्रेकिंग बने। टिकर की खबर बने। लच्छेदार पैकेज के शब्द बने। लेकिन अफसोस इतना कुछ होने के बावजूद देश की राजधानी को उनका दर्द नहीं दिखा। या फिर हम देश की राजधानी को उनका दर्द नहीं दिखा पाए। देश की राजधानी को दिखा ट्रैफिक जाम। हर रोज सरकारी लापरवाही या फिर अपनी गलती से ऐसे ट्रैफिक जाम से जूझते दिल्ली वासियों को बहुत बुरा लगा। आखिर एक दिन उनकी जिंदगी जो अस्त-व्यस्त हो गई।
इससे क्या मतलब है कि हममें से कई इसी खेती किसानी की कमाई से पढ़-लिखकर यहां तक पहुंचे है। इससे क्या फर्क पड़ता है कि हमने से कई ने रात भर जाग-जाग अमावस की स्याह अंधेरी रातों में खेत सींचा है। अब हम 100-100 रुपये के लिए परेशान होने वाले किसान के बेटे थोड़े ही हैं। अब हम खेती किसानी की कमाई से पढ़-लिखकर इस बड़े शहर और आसपास के इलाकों में अपना घर बनाने की जद्दोजहद में लगे हैं। अब तो हमें अपना घर बनाने, अपनी लंबी-लंबी कारों के लिए सड़क बनाने, अपने लिए लग्जरी सामान बनाने वाली फैक्ट्रियों के वास्ते इन्हीं किसानों की जमीन चाहिए। चीनी की कीमतें भले ही 38 रुपये किलो पहुंच जाएं। लेकिन इसका फायदा हम इन किसानों के हाथ में कैसे जाने दें। आखिर इसी मुनाफे और फायदे से खेती की जमीनों पर हमें गगनचुंबी इमारतें खड़ी करनी हैं। अगर ये किसान बचे रहे और इनकी किसानी बची रही तो इनकी जमीन पर हम गगनचुंबी इमारतें कैसे खड़ी कर पाएंगे। वैसे भी हम इनकी बात क्यों करें, ये हमारे ग्राहक भी तो नहीं है। अब हमें इन गंवार, गंदे किसानों से क्या लेना-देना। और तो और जो सांसद और राजनेता इनके 'गलत' आंदोलन के साथ जुड़े हम उनको भी कठघरे में खड़ा करेंगे। हम उन्हें इसलिए कठघरे में खड़ा करेंगे कि आखिर एक दिन संसद की कार्यवाही ठप करके उन्होंने देश को लाखों रुपये का नुकसान क्यों कराया। आखिर सर्दी, बारिश, गर्मी की परवाह न करने वालों किसानों के हक की बात उन्होंने क्यों की? किसने उन्हें हक दिया कि वो किसानों की बात करें। हो सकता है कि 80 फीसदी या उससे भी ज्यादा सांसद इन्हीं किसानों के वोट से चुनकर देश की महापंचायत में पहुंचे हों लेकिन उन्हें हक नहीं है कि कुछेक लाख दिल्लीवासियों को करोड़ों किसानों के लिए वो जाम में फंसने के लिए छोड़े दें। आखिर इस जाम से किसी की फ्लाइट मिस हो गई। हो सकता है इससे उसे लाखो-करोड़ों का नुकसान हो गया है। इस जाम से किसी की बिजनेस मीट रद्द हो गई। हो सकता है उससे उसके बैंक बैलेंस में कुछ करोड़ और आने से रह गए। वैसे भी ये जाहिल किसान कुछ रुपये के लिए दिल्ली को एक दिन के लिए ट्रैफिक जाम में कैसे फंसा सकते हैं। हम ऐसे किसानों को माफ नहीं कर सकते और हमें उन्हें माफ करना भी नहीं चाहिए। सुन रहे हो किसानों! देश को चीनी देने वालों! खुद गुड़ से काम चलाने वालों! दिल्ली तुम्हें माफ नहीं करेगी। हां, जब कोई पुण्य प्रसून वाजपेयी तुम्हारे बारे में लिखेंगे, जब कोई प्रताप सोमवंशी बुंदेलखंड में तुम्हारी दर्दनाक मौत पर कलम चलाएंगे तो हम उनकी मर्मांतक रिपोर्ट पर उन्हें पुरस्कार देंगे। इससे तुम्हारे घाव पर मरहम लग जाएगा। इसलिए हे किसान! खबरदार! अब कभी मत आना दिल्ली।
Thursday, November 19, 2009
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12 comments:
बहुत जोरदार लिखा भाई आपने। अब क्या कहा जाए?
बढिया व्यंग्य
आज किसान बस बहस तक के लिये प्रासंगिक रह गया है।
जोरदार और सार्थक एंट्री .
आपका स्वागत है !
इंडिया भारत को राजधानी में कैसे सहेगा :) .
और वार्ड वेरिफिकेसन निकल दें .इसका कोई फायदा नहीं .सिर्फ tipiana मुश्किल हो जाता है .
भाई ये बताए की जो कम्पनी कार बनाती है उसकी कीमत वह तय करती है जो साबुन बनाती है उसकी भी कीमत वह तय करती है हम गन्ना, अनाज़ जो भी पैदा करते है उसकी कीमत तय करने वाली ये सरकार और मिल मालिक कौन होते है, किसान की हाड़ तोड़ मेहनत...........
विजय जी
सादर वन्दे!
एक बेहद शसक्त प्रस्तुति, ए नेता व उनकी जैसी जनता बातों से नहीं समझने वाली, आगे राम जाने.
रत्नेश त्रिपाठी
अच्छी रचना। बधाई। ब्लॉग जगत में स्वागत।
महंगी होती चीनी के लिए किसान नहीं ...सरकार की नीतियाँ जिम्मेदार है ...गन्ने की खरीद और चीनी के मूल्य के बीच के अंतर को सरकार बैलेंस करती रही है ...जिससे किसान और मिल मालिक दोनों को ही नुक्सान ना उठाना पड़े मगर अब संभव नहीं है ...मिल मालिक आज भी पुराने दामों में गन्ना खरीद रहे हैं ...जबकि बाजार में चीनी महँगी उपलब्ध करवा रहे हैं ...क्यों ना होगा ऐसा ...देश के इतने बड़े मंत्री की इतनी सारी सुगर मिल्स जो हैं ...!!
बधाई और शुभकामनायें ...
हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी टिप्पणियां दें
बहुत ही बढ़िया ....
यह सच है पर दुर्बल मन है कुछ कहने से डरता है,
जय जवान और जय किसान का नारा भी अब मरता है|
मैं तो कहता हूँ कि अब देर नहीं करनी है, हमें बताना है कि किसान क्या है और दिल्ली क्या है ...
प्रिय विजय
पढ़ कर अच्छा लगा कि आजादी के ६० सालों के बाद भी विदेशी शासन के दौर जैसा ही शोषण भोगने को अभिशप्त इस देश के किसानों की तकलीफें शहरी हो चुके उनके सारे बेटे नहीं भूले हैं। लोकशाही के नाम पर कुछ भूरे साहब, गुंडे, बदमाश, उठाईगीरे, इन्हीं मूर्ख किसानों-मजदूरों के दम पर देश की सत्ता पर काबिज हैं और सत्ता से जुड़े लगभग सभी प्रतिष्ठान इन्हीं भूरे साहबों और उनके निजी हितों का सम्पादन करने वाले अमीरों के हितों की रक्षा के लिए सचेष्ट हैं। भूरे साहबों का यह समूह मुख्यतः आरामदेह शहरों में चमचमाती रोशनी, लकदक गाड़ियों, गगनचुम्बी इमारतों में या इनके इर्द-गिर्द उगाये गए पंचतारा-साततारा होटलों की लाबियों में रहता है। मीडिया भी इन्हीं माननीय भूरे साहबों की भाषा बोलता है। यही वजह है कि समूचे सत्ता प्रतिष्ठान और मीडिया को किसानों का दिल्ली आना बुरा लगता है। देश की मौजूदा व्यवस्था ने जो विद्रूप रचे हैं उनका ही परिणाम है कि किसान को गेहूं की कीमत मिलती है आठ रुपये प्रति किलो और उसे बाजार से गेहूं लेना हो तो मिलेगा चौदह रुपये किलो, गन्ना बिकेगा सवा रुपये किलो और उससे बनने वाली चीनी मिलेगी ४० रुपये किलो, धान बिकेगा नौ रुपये किलो और चावल बिकेगा ४५ रुपये किलो। पूरे देश में किसान और खेतिहर मजदूर के हालात आम तौर पर आदिवासियों और जनजातियों के हालात से रत्ती भर भी अलग नहीं है। घटिया हिंदी और अधकचरी अंग्रेजी बोलने वाली इंडिया को ठेठ भारतीय बोलियों में अपने भावों की अभिव्यक्ति करने वाले किसानों-मजदूरों, आदिवासियों और दूसरे शोषित-उत्पीड़ित वर्गों की बात समझ में आये भी तो कैसे? और जिन्हें ये बोलियां थोड़ा बहुत समझ में आती भी हैं वे वर्गच्युत होने का खतरा क्यों उठायें? अपने घर में आग लगेगी तो देखेंगे.. वरना किस-किस के घर में लगी आग बुझाने को ये भूरे साहबान परेशान होते फिरेंगे? और हां, किसान तो अब जाग जाए तभी भला.. वह अपना जीना हराम करने वालों का जीना जब तक हराम न कर देगा उसका हक कोई देने वाला नहीं।
श्रीक
---- चुटकी----
राहुल थके
प्रियंका ने
चलाई कार,
अब तो
यह भी है
टीवी लायक
समाचार।
हौसला अफजाई के लिए सभी का धन्यवाद
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