Tuesday, December 1, 2009

खदान में दफन होते खानदान

पत्थर, स्लेट की खदानों की शोर में खामोशी से मिली फेफड़े की खौफनाक बीमारी सिलिकोसिस से तिल-तिल कर दम तोड़ते लाखों मजदूर। ये तेजी से विकसित होते भारत का ऐसा खौफनाक सच है जिससे सरकार, सरकार मशीनरी सब आंखे मूंदे बैठे हैं।

दरअसल सिलिकोसिस खदान और कंस्ट्रक्शन मजदूरों के शरीर में खामोशी से घर बना लेने वाली भयानक मौत है। पत्थर तोड़ने के दौरान निकली खतरनाक सिलिका चुपके-चुपके इन मजदूरों के फेफड़ों में जगह बना लेती है। फिर धीरे-धीरे खामोशी से उन्हें अपनी जकड़ में ले लेती है। इस बीमारी की गिरफ्त में आए मजदूर के फेफड़े धीरे-धीरे सिकुड़ने लगते हैं और एक दिन सांस लेने से इनकार कर देते हैं। सिलिकोसिस की गिरफ्त में आने का सिर्फ एक ही मतलब है तिल-तिल कर मौत। स्लेट पेंसिल कटिंग, स्टोन कटिंग उद्योग में सिलिकोसिस ज्यादा भयानक है। अलग-अलग उद्योगों में इसके चपेट में आने की आशंका भी अलग-अलग है। वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक सिलिकोसिस विकासशील देशी की बहुत ही गंभीर समस्या है। भारत सहित कई विकासशील देशों के लाखों मजदूर धीरे-धीरे मौत की आगोश में चले जाते हैं। कई बार तो इनके परिवार को भी इनकी मौत की वजह नहीं पता चल पाती। जहां दो रोटी मुश्किल से मयस्सर होती है वहां इस गंभीर बीमारी की चपेट में आने के बाद मजदूर अपना इलाज नहीं करा पाता।

आईसीएमआर के 10 साल पुराने आंकड़े के मुताबिक उस वक्त देश में 30 लाख मजदूर और कंस्ट्रक्शन में लगे 56 लाख मजदूरों के सीधे तौर पर सिलिकोसिस की चपेट में आने का खतरा था। तबसे अर्थव्यवस्था में भारी उछाल के साथ निर्माण कार्यों और खदानों की गतिविधियों में भी तेजी से बढ़ोतरी हुई। इसी के साथ मजदूरों की संख्या भी कई गुना बढ़ी। यानी खतरा भी उसी अनुपात में बढ़ा। लेकिन इस खौफनाक बीमारी को लेकर खान मालिकों, राज्य सरकारों और यहां तक केंद्र सरकार का रवैया हमेशा से उदासीन रहा है। अभी तक के मामलों से यही साबित होता है कि सिलिकोसिस के रोगी इस क्षेत्र में काम रही एनजीओ, अदालत और एनएचआरसी के मोहताज हैं। कुछेक एनजीओ की सक्रियता के चलते मजदूरों की इस रहस्यमय बीमारी को लेकर जागरुकता जगी। वरना सिलिकोसिस से मौत के मामलों में अस्पताल भी टीबी से मौत का डेथ सर्टिफिकेट ही जारी करते थे।

सरकारी उदासीनता से त्रस्त कई स्वयंसेवी संस्थाओं ने अदालतों का ध्यान इस ओर खींचा। एनजीओ की याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने घातक और मारक सिलिकोसिस से मजदूरों को बचाने और उन्हें राहत देने के लिए एनएचआरसी को आदेश जारी किए। मार्च 2009 के एक फैसले में तो माननीय उच्च न्यायालय ने सिलिकोसिस के हर पीड़ित को वैयक्तिक आधार पर राहत दिलाने के निर्देश दिए। सुप्रीम कोर्ट के आदेशों और कई एनजीओ की शिकायतों पर गौर करते हुए एनएचआरसी ने सिलिकोसिस के पीड़ितों को राहत दिलाने की पहल की है। सिलिकोसिस को लेकर राज्यों के लापरवाह रुख से अवाक राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग अब कड़ी कार्रवाई के पक्ष में है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के मेंबर सेक्रेट्री और सिलिकोसिस के मामलों पर नजदीक से निगाह रख रहे पी सी शर्मा के मुताबिक एनएचआरसी सिलिकोसिस के हर पीड़ित को उसका वाजिब हक दिलाने के लिए कटिबद्ध है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग मजदूरों के मानवाधिकार की रक्षा के लिए इनके प्रति लापरवाही बरतने वाले सरकारी अफसरों और नियोक्ताओं के लिए कड़े दंड के पक्ष में है।

इसी भारत में खदान खोदवाते-खोदवाते बेल्लारी के रेड्डी बंधु कर्नाटक में सरकार बनाने-बिगाड़ने में लग गुए। झारखंड में कहा जा रहा है कि मधु कोड़ा ने इन्ही खदानों के आवंटन की बदौलत 4000 करोड़ से ज्यादा की अकूत काली कमाई की। ये इस भारत की खदानों का एक सच है। दूसरा सच है, यही खदानें लाखों मजदूरों और उनके खानदान के लिए खामोश मौत का खौफनाक सबब हैं। सौ रुपये की दिहाड़ी के लिए खामोशी से नौकरी करने वाले गरीब मजदूरों की मौत भी उतनी ही खामोश होती है। हर साल हजारों मजदूर की खामोश मौत पर सरकारी खामोशी खौफनाक है। इन खौफनाक, खतरनाक और खामोश मौत पर जरूरत सरकार की खामोशी टूटने की है। भारत के दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने में इन अकुशल मजदूरों का बड़ा योगदान है। इन जैसे अकुशल मानव संसाधन के बल पर भारत तेजी से दुनिया के पटल पर अपनी जगह मजबूत करता जा रहा है लेकिन सोचिए जरा अगर भारत की मानव संपदा इसी तरह सरकारी मशीनरी की बेशर्म लापरवाही की भेंट चढ़ती रही तो दुनिया का सिरमौर बनने का भारत का सपना कहीं सिर्फ सपना ही न रह जाए।

Thursday, November 19, 2009

किसान! खबरदार! अब मत आना दिल्ली

दिल्ली हाट, ट्रेड फेयर, सूरजकुंड मेले में सजावटी सामान की तरह दिखने वाला किसान 19 नवंबर को दिल्ली की सड़कों पर था। दिल्ली की सड़कें बंधक हो गईं। रुकी-रुकी सी लगने लगी थी दिल्ली की जिंदगी। सड़क पर हजारों किसान थे। शायद ही इनमें से किसी को दिल्ली की सैर कराने का लालच देकर लाया गया हो, जैसा कि कई रैलियों में होता है। ये दिल्ली का लाल किला, कुतुबमीनार, पुराना किला या हुमायूं का मकबरा नहीं देखने आए थे। ये प्रगति मैदान में चलने वाले ट्रेड फेयर की सैर करने नहीं आए थे। ये चांदनी चौक या दिल्ली के लकदक चमचमाते मॉल में खरीदारी करने नहीं आए थे। ये किसान देश की राजधानी को अपना दर्द बताने आए थे। लम्बे अरसे बाद किसान अखबारों की लीड बने। चैनलों की ब्रेकिंग बने। टिकर की खबर बने। लच्छेदार पैकेज के शब्द बने। लेकिन अफसोस इतना कुछ होने के बावजूद देश की राजधानी को उनका दर्द नहीं दिखा। या फिर हम देश की राजधानी को उनका दर्द नहीं दिखा पाए। देश की राजधानी को दिखा ट्रैफिक जाम। हर रोज सरकारी लापरवाही या फिर अपनी गलती से ऐसे ट्रैफिक जाम से जूझते दिल्ली वासियों को बहुत बुरा लगा। आखिर एक दिन उनकी जिंदगी जो अस्त-व्यस्त हो गई।

इससे क्या मतलब है कि हममें से कई इसी खेती किसानी की कमाई से पढ़-लिखकर यहां तक पहुंचे है। इससे क्या फर्क पड़ता है कि हमने से कई ने रात भर जाग-जाग अमावस की स्याह अंधेरी रातों में खेत सींचा है। अब हम 100-100 रुपये के लिए परेशान होने वाले किसान के बेटे थोड़े ही हैं। अब हम खेती किसानी की कमाई से पढ़-लिखकर इस बड़े शहर और आसपास के इलाकों में अपना घर बनाने की जद्दोजहद में लगे हैं। अब तो हमें अपना घर बनाने, अपनी लंबी-लंबी कारों के लिए सड़क बनाने, अपने लिए लग्जरी सामान बनाने वाली फैक्ट्रियों के वास्ते इन्हीं किसानों की जमीन चाहिए। चीनी की कीमतें भले ही 38 रुपये किलो पहुंच जाएं। लेकिन इसका फायदा हम इन किसानों के हाथ में कैसे जाने दें। आखिर इसी मुनाफे और फायदे से खेती की जमीनों पर हमें गगनचुंबी इमारतें खड़ी करनी हैं। अगर ये किसान बचे रहे और इनकी किसानी बची रही तो इनकी जमीन पर हम गगनचुंबी इमारतें कैसे खड़ी कर पाएंगे। वैसे भी हम इनकी बात क्यों करें, ये हमारे ग्राहक भी तो नहीं है। अब हमें इन गंवार, गंदे किसानों से क्या लेना-देना। और तो और जो सांसद और राजनेता इनके 'गलत' आंदोलन के साथ जुड़े हम उनको भी कठघरे में खड़ा करेंगे। हम उन्हें इसलिए कठघरे में खड़ा करेंगे कि आखिर एक दिन संसद की कार्यवाही ठप करके उन्होंने देश को लाखों रुपये का नुकसान क्यों कराया। आखिर सर्दी, बारिश, गर्मी की परवाह न करने वालों किसानों के हक की बात उन्होंने क्यों की? किसने उन्हें हक दिया कि वो किसानों की बात करें। हो सकता है कि 80 फीसदी या उससे भी ज्यादा सांसद इन्हीं किसानों के वोट से चुनकर देश की महापंचायत में पहुंचे हों लेकिन उन्हें हक नहीं है कि कुछेक लाख दिल्लीवासियों को करोड़ों किसानों के लिए वो जाम में फंसने के लिए छोड़े दें। आखिर इस जाम से किसी की फ्लाइट मिस हो गई। हो सकता है इससे उसे लाखो-करोड़ों का नुकसान हो गया है। इस जाम से किसी की बिजनेस मीट रद्द हो गई। हो सकता है उससे उसके बैंक बैलेंस में कुछ करोड़ और आने से रह गए। वैसे भी ये जाहिल किसान कुछ रुपये के लिए दिल्ली को एक दिन के लिए ट्रैफिक जाम में कैसे फंसा सकते हैं। हम ऐसे किसानों को माफ नहीं कर सकते और हमें उन्हें माफ करना भी नहीं चाहिए। सुन रहे हो किसानों! देश को चीनी देने वालों! खुद गुड़ से काम चलाने वालों! दिल्ली तुम्हें माफ नहीं करेगी। हां, जब कोई पुण्य प्रसून वाजपेयी तुम्हारे बारे में लिखेंगे, जब कोई प्रताप सोमवंशी बुंदेलखंड में तुम्हारी दर्दनाक मौत पर कलम चलाएंगे तो हम उनकी मर्मांतक रिपोर्ट पर उन्हें पुरस्कार देंगे। इससे तुम्हारे घाव पर मरहम लग जाएगा। इसलिए हे किसान! खबरदार! अब कभी मत आना दिल्ली।